...

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जब 'मैं' की हवा लगती है कोई 'दवा' कहाँ लगती है?
जिसको मैं की हवा लगती है,
उसको कोई दवा कहाँ लगती है?
प्रशंसा उसे औरों की खलती है,
अपनी ही बडा़ई उसे अच्छी लगती है।

अहम की धारा में बहता रहता,
रिश्ते-नाते सब भूल जाता है।
अहंकार में वो जीता मरता,
जिंदगी में दुखों की सजा लगती है।।
जिसको मैं की हवा.....

दंभ में डूबा वह औरों की कहाँ सुनता है?
कदम- कदम पर वो अपना राज चाहता है।
खुद को सबसे श्रेष्ठ समझता है,
डर भय की उसे बवा लगती है।।
जिसको मैं की हवा......

अपने ही गुणों का बखान उसे सुहाता है,
वह अपने ही ख्वाबों का किला बनाता है।
यथार्थ से सदा दूर भागता,
असुरक्षा की भावना उसमें आ जाती है।।
जिसको मैं की हवा........

धन-दौलत, रूप-सौंदर्य का अभिमान क्यों कर?
दिया है जो प्रभु ने उसका तिरस्कार क्यों कर?
बनकर आये हो मुसाफिर इस जग में,
फिर खाली हाथ ही जाना यहाँ की परीपाटी है।।
जिसको मैं की हवा.......

बल-पराक्रम, खूबसूरती और जवानी,
सब हैं दो दिन की कहानी।
पढ़ ले इतिहास अभिमान करने वालों का,
अंत में कैसी दुर्गति हो जाती है?
जिसको मैं की हवा................


© Suraj Sharma'Master ji'