...

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पुराना घर
दरवाजे का टर्र करके खुलना,
अशोक की डालीं के झरोके का मुह पर पड़ना,
चिकनी मिट्टी पर फिसलना,
और दोड़ कर पलंग पर जा गिरना।

प्यार करने के लिए बहुत सारे हाथों का सिर पर होना,
दोस्तों की आवाज सुनते ही झटपट घर से भाग जाना।

काम के लिए एक आने की रिश्वत लेना,
कुल्फी वाले की घंटी सुनकर तुरंत भागे आना,
"भईआ रुको जरा, जाना नहीं",
कह कर वापस घर में बड़ों से लिपट जाना,
नौटंकियों की दुकान थे हम,
चपेट मिला तो रो जाते थे,
और आना मिला तो कुल्फी खा आते थे।

साथ मिलकर लोगों का खाना पीना एक अलग ही सुकून था,
उनके हाथों से एक एक निवाला खाके पेट भरने का मजा ही अलग था।

शाम होते ही बातों की जमात लगना,
चबूतरे पर पुरुषों का हुक्का गुडकना,
रोना हँसना सब साथ में था।

खुले आसमान के नीचे सुकून बहुत था,
चाँद तारों की रोशनी में नूर बहुत था,
मेरा पुराना घर, आज की दुनिया से बहुत दूर था।
© shivika chaudhary