...

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पहला और आख़िरी दिन...
स्कूल का बस्ता जब जिंदगी में पहली बार टांगा था,
तब मैने जिंदगी से कुछ पल और ठहर जा मुझे नहीं जाना स्कूल कह वक्त मांगा था...
और.....
आज मेरे स्कूल का आखिरी दिन था,
कुछ पल और मिल जाते ये मन था,
मैंने स्कूल के पहले दिन घर से न जाने के लिए ज़िद की थी...
पर आज स्कूल से घर की ओर वापस जाना मुझे मंजूर नहीं था...

यादों का गुलदस्ता अब भी लग रहा था खाली,
फूल तो बगिया छोड़ रहे थे आंखो में आंसू लिए खड़ा था माली...
सींचा था उसने कई सालो से उस बीज को
जो आज आदर्श बन उस बगिया में खिल रहा था,
उन फूलो को देख माली की खुशी को आशियाना मिल रहा था...

मातपिता की तरह अपने आंचल में हमें रख
एक असाधारण मानव मानवता को पुलकित कर रहा है.. वो तो आगे भी होता रहेगा....
हमारे ‘शिक्षक ’ हैं वो कहा उनका कार्य निष्फल होगा....
उनके कर्तव्य की बात तो पल पल होगा!

स्कूल के पहले दिन लग रहा था की कब घर वापस जाऊ
और आखिरी दिन.....
आज लग रहा था समय का पहिया रूक जाए,
यादों का गुलदस्ता थोड़ा और सज जाए,
कही इस पल के खत्म होने का बिगुल न बज जाए....

स्कूल के पहले दिन अंजाने लग रहे थे साथ बैठे बच्चे,
जो आज मेरे दोस्त हैं सच्चे...
उनसे दूर दूर का तब नाता नहीं था,
उनकी अठखेलियां करना मुझे भाता नहीं था...
और आज आखिरी दिन....
उनसे नजरे मोड़ लू....
उनका साथ शायद छोड़ दूं...
ये मन मेरा मानता नहीं था...

उस बचपने भरे बचपन को याद कर...
हस रही थी कभी जज्बात पर...
अब क्या करू जिंदगी को इसकी फरियाद कर!

कट्टी कर नाराजी हो जाती दोस्ती से ...
बट्टी कर गले मिल जाते थे मस्ती में...
अब नाराज किससे होऊंगी,
उन दिनों को कहा कहा सजोंगी,

पहले दिन जब स्कूल में कदम रखा था,
बस्ते में किताबो के सिवा कुछ नहीं था...
और आज जब स्कूल से बाहर कदम रख रही हूं...
तो बस्ता मेरा खयाल, याद, बहुत सवाल, खुशियां, मस्ती के खजाने से लब लब भरा था...
किताब साफ सुथरी तो नही थी,
डायरी के पन्नों पे हमने अपनी पूरी कहानी लिखी थी....
नीला बस्ता आज रंगीला था,
किसीने कोई विशेष टिप्पणी लिखी,
किसीने लाल स्याही से कोड वर्ड बनाया,
कुछ बस्ते आंसुओ से गीले थे,
आज मानो हमें अपनी जिंदगी के पहलू देखने मिले थे....

स्कूल भी क्या अजब चीज है न...
जो हमारा क्लास था वो मानो हमारा परिवार था...
जो बिना किसी गीले शिकवे के अलग हो रहा था...
मन ही मन हमसे बिछड़ कर मेरा वो स्कूल भी रो रहा था...

किसी ने पूरे साल किए झगड़े का शोक मनाया,
आज कुछ जलने वालो ने भी गले लगाया... ये ही तो खासियत है स्कूल के आखिरी दिन की....

लिखते लिखते शब्द आज काम पड़ गए,
वो भी क्या दिन थे स्कूल की दीवार पे लिखते थे तब शब्द इतने भरपूर थे की दीवार कम पड़ जाती थी..
अब लिखने की बात आई है तो बेंच पे की कलाकारिया कैसे भूल सकते हैं,
बेंच पे अपना नाम लिखना मानो आवश्यक था...
दूसरे स्कूल की यूनिफॉर्म स्याही से रंगना...
दुपट्टे को एक दूसरे के दुपट्टे से बांधना....
कहा भूल पाएंगे उस जिंदगी का तराना...

क्लास के लास्ट बेंच के बच्चो की तो बात ही अलग थी...
लंच के पहले खाने का डिब्बा खुल जाना,
शिक्षक के पढाते समय ही मजाक मस्ती की महफिल जमना,
एक दूसरे को चिढाना,
तीन लोगो में किसी एक दोस्त की बेज्जती होना,
इतिहास की किताब खुलते ही सोना
maths की क्लास में पिछले पन्ने पर अजीबो गरीब चित्र बनाना
कभी कभी उसमे हम भी शामिल थे,
वो बेंच हमारी सुनहरी यादों का गुल्लक है,
जहां हमने बचपने से समझदार होने तक का सफर तय किया है....

बहुत कुछ और लिखना है...
सोचती हूं स्कूल में और कुछ दिन रुकना है...
जिंदगी को थोड़ी देर रोक और जीना है.....

©वंशिका चौबे
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