...

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"हाँ.. मै ऐसी ही हूँ"
जिंदगी रास नहीं आती..
कभी कभी लगता हैं की अकेली हूँ,
देखती हूँ फिर मुड़कर जरा,
कोई है जो चाहता है मुझे,
पर डर भी दिल में बेखौफ रहता है,
खौफ जो जमाने का जीने नही देता है,
बस यूँ ही बैचेन रहा करती हूँ,
चाहते बेहिसाब रखती हूँ मगर,
किसी एक को जिंदगी कहती हूँ,
खैर... गलत हूँ... जमाना कहेगा ऐसा,
खामोश हूँ.. पागल ही बताएगा,
ज्यादा बातें करती नही मै किसी से,
पर जो भाता है मुझे.. उसे सुनाती भी बहुत हूँ,
कभी-कभी...जब कोई सुनने वाला नही होता,
अक्सर..तब मै खुद से ही रूठ जाया करती हूँ,
पूछता है फिर खैरियत कोई चाहने वाला,
उसकी उदासी की कद्र कर,
हंसकर हाल ठीक बताती हूँ,
मै अजनबी हूँ.... पागल हूँ...,
हर किसी को अच्छा कहती हूँ,
खुद की खुशी अक्सर ठिकाने लगाए बैठी हूँ,
चाहने वाले की जरा जरा बातों पर,
उससे नाराज हो जाती हूँ,
कभी जिंदगी हाल पूछती हैं तो,
मै हंसती हूँ.. और बस यूँ ही कह देती हूँ,
अब मरना भी यूँ मुझे पसन्द नहीं...दीप,
मै इरादे जो सैन्य रखती हूँ,
दिवानी तो हूँ ही मै,
जरा जमाने की... बहुत ज्यादा मेरे वतन की,.
जब रास नही आती जिंदगी मुझे,
बस इस तरह अल्फाज लिए मै,,
पन्नो पर उतर आती हूँ,
मै ऐसी ही हूँ दीप,
निरास तो नही मगर...ख्यालातो के समुंदर दबाये बैठी हूँ,
जो हूँ... जैसी हूँ...जिसकी हूँ...बात है कुछ,
तभी तो कोई अपने पन्नो में मुझे खास लिखता है,
मै अदृश्य हूँ...हाँ मैने अपने स्वरूप को ही कहा है,
सबसे अच्छे से..बड़े सलीके से नही मगर..सलीका जरूर पेश करती हूँ,
ना पूछो मुझे...मै कौन हूँ,
जो हूँ सामने हूँ..
पर हाँ चेहरे से नही...पहचान मेरी दिल में है......!!

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