...

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एक मोर की प्रेम कहानी....


बीती शाम की वो तेज हवा याद तो होगी तुम्हे ....
तुम बालकनी में खड़ी ...उस तेज हवा का कहर देख रही थी ..
क्या मुझे पहचाना ......
तुम्हारी बालकनी के सामने ....गुलमोहर के पेड़ पर बैठा मैं वो ही मोर हूँ
जो उस तेज हवा के थपेड़े सह कर भी वहीँ था
क्यूंकि तुम वहां खड़ी थी न ............
मुझे अच्छा लगता है ..तुम्हारा हँसता खेलता घर
मैं कई बार ख़ुशी में झूम उठता हूँ ...तुम्हारी छत पर
मुझे अच्छा लगता है ....तुम्हारी मुंडेर पर घंटो बैठे रहना
मैं जब भी तुम्हारी छत पर ...नाचता हूँ ...अपने कुछ पंख छोड़ देता हूँ ...
जानती हो ....मुझे पता है तुम वो सब बटोर लेती हो ...
और जहाँ तुमने अपने परिवार की तस्वीर लगाई है ......
वहा टांक देती हो उन्हें ....
मैंने बहुत बार तुम्हारे आँगन से झांक कर देखा है ...
मैं अक्सर इसी समय रोज इस गुलमोहर के पेड़ पर आता हूँ
जानता हूँ तुम रोज इस वक़्त यहाँ आती हो ...
और बहुत प्यार से .....इस गुलमोहर को देखती हो देर तक ...
क्यूँ अच्छा लगता है तुम्हे ये .....मैं नहीं जानता .....
पर मुझे जाने क्यूँ ऐसा लगता है ....की तुम रोज मुझे देखती हो
पहचानती हो ....की मैं वही हूँ जो तुम्हारी ..मुंडेर पर बैठता हूँ
नाचता हूँ .............अपने पंख गिरा देता हूँ ...और तुम्हे अच्छा लगता हूँ
इसीलिए मैं रोज आता हूँ ...रोज ....हर रोज ....
बीती शाम भी वहीँ था .....
पर उस तेज हवा को मंजूर न था शायद .....
जैसे ही तुम .....बालकनी से चली गयी .....
अचानक वो शाख टूट गयी जिस पर मैं बैठा था .....
और मैं बहुत घायल हूँ ....पता नहीं मेरा अब क्या होगा ...
पर मुझे ख़ुशी है ....मेरे कुछ पंख ....आज भी तुमने सहेज कर रखे हैं
शायद मैं अब से न दिखूं तुम्हे ......
पर तुम परेशान मत होना .....मैं हमेशा रहूँगा उन पंखो में
जो तुमने सहेज रखे हैं ....तब तक ...जब तक तुम चाहोगी ............
संजय नायक"शिल्प"
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