...

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शून्यता..
छोटी सी एक चिड़िया
पेड़ की रस्सी में झूलते हुए
आज ख़ुद से ही
माथापच्ची कर रही थी
सूनी आँखों से
धरती आकाश छानते हुए
ख़ुद से ही
झगड़ रही थी

दाने तिनके बटोरकर
सीधेपन की फ़ज़ीहत लिए
ये अकेली यात्रा
आख़िर कब तक
तूफ़ानों का सामना कर
थक जाती हूँ मैं भी तो
ये खानाबदोश सा जीवन
कब तक

विधाता ने आज़ादी
तो दी है मुझे
किंतु
लील लिए गए
रिश्तों की स्मृतियों से आज़ादी
का इंतज़ार
मुझ अदना सी मूक चिड़िया
के हिस्से कब तक

समय की लहरों पर
मीलों उड़ान भरती हुई
बचती बचाती यहाँ तक पहुँची तो हूँ
अब स्वयं से ही एकतरफा संवाद में
जीने का भ्रम पालती रहूँ
आख़िर कब तक

पत्थरों का मुझमें बसा शहर
घुटता घुलता खामोशी का ज़हर
मुझमें विलीन मैं ही मैं
और मेरा ये तन्हा सफ़र
इस असीमित शून्यता का उपहास
झेलती रहूँ मैं
आख़िर कब तक..!!

© bindu