~जंग~
बह गए लहू,
फैल गयी दरिद्रता,
परंतु जंग अभी शेष है,
विजय पताका फहराने को मानव ने धारण किया ये वेश है।
काटी सौ- सौ बाह,
अश्रुत अखियाँ में है प्रतिशोद की दाह,
नश्वर भूमि के वास्ते,
करते हैं मानव स्वयं का नाश।
प्रियतम है रूठी,
सूरज की वाणी भी अग्नि से करती भूमि को जुठी,
अनंत चिह्न छोड़ गया घन भी,
जब काल ने स्वयं मानव के चक्र को गुथी।
अचानक आ गया मौसम ये पतझड़...