...

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बेड़ियां....!
क्यों मुझे अपनी सोच की बेड़ियों से बाँधते
हो तुम?
क्यों मेरी सीमायें हर पल निर्धारित करते
हो तुम?
क्यों लिंग के आधार पर हमारी योग्यता जाँचते
हो तुम?
क्यों मेरे पंखों को कमज़ोर आँकते
हो तुम?
जब झुकी आँखे बन सकती हैं पर्दा,
तो क्यों लम्बा घूंघट लेने की सीख देते
हो तुम?
जब मैं सबके बीच रह अपनी मर्यादा का पालन कर सकती हूं,
फिर क्यों तुम चार दीवारों में कैद रहने
को कहते हो तुम?
क्यों रूप के सुनहरेपन से ल्लाहीत होते
हो तुम?
क्यों हीरे रुपी मन की चमक से नज़रे फेरते
हो तुम?
क्यों राज्य और देश की सीमाओं से हमे परखते
हो तुम?
क्यों बिना जाने अपनी धारणा बनाते
हो तुम?
एक बार अपनी सोच की बेड़ियां तोड़ कर
तो देखो,
एक बार हमें ज़रा न्यायरुपी नेत्रों से समझ कर तो देखो,
एक बार भेड़ चाल से अलग चल के
तो देखो,
एक बार हमारे मन से जुड़ कर
तो देखो,
शायद जीवन के इंद्रधनुष को देख सकोगे।
© kit🫰

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