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दोहे
भोर भई आंख खुला, कुछ सपने कुछ प्यार।
मैं अकेला लुढ़क पड़ा, पर तेरे यार बेकार।।

वन तेरी न जल तेरा, माटी का कोय नाहि।
ये सारे परमार्थी, तू नहीं समझा भाई।।

मैली तन मेरी मन तेरा, तू काला मैं गोर।
आज कमाया खा लिया, भाग रे लंगड़ा चोर।।

चंचल रूप चलन मनमानी, निकट होय बदरंग।
आहे सती तुम दूर रहो, हम नहीं पापन संग।।

सब जायज़ धरती पे, नाजायज कुछ नाय।
माधो मिथ्या छल करे, हमनी का हरजाय।।

ऊंचे हाथी महावत नहीं, मुख ना पशु चबाई।
सांस रही तेरा बोझ लिया,शव आहार दवाई।।

गुरु वचन विष नहीं, उनकी न शिष्य से बैर।
भट्ठी जलाता कोयला, तपना ही लोहन खैर।।

सुख दुख उन्नति अवनति, सारी काल की चाल।
आज हाट तेरा रहा, काल्ह हमारा काल।।

मिट्टी पराया संपति, कोय न इसका बाप।
माप सका न कोय अमीन, सबको जोता माट।।


© rakesh_singh🌅