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श्रृंगार:-एक प्रश्न हर बार
मन में आती एक बात हमेशा,क्यों नहीं कर सकती श्रृंगार स्त्री ख़ुद के लिए।
श्रृंगार पे तो है उसका एकाधिकार।
ख़ुद को अस्त-व्यस्त दिखाना कहां तक है सही?
किसी स्त्री के सजने संवरने पे क्यों हर बार सवाल कई।
जरूरी नहीं सज रही हो किसी के लिए।
ख़ुद की मुस्कान आईने में देख कर,संवरी हुए सूरत के साथ पा ले असीम ऊर्जा पूरे दिन के लिए,अपने आत्मविश्वास के लिए।
धोखा खाई,छोड़ी हुई ,तानों से घिरी, ब्याही,अनब्याही परिवार समाज के, ख़ुद के सारे झंझावातों से निकलने की कोशिश करती क्यों नहीं कर सकती श्रृंगार।
क्या करना होगा अपने ही श्रृंगार को आदमी के होने,ना होने की कसौटी के हवाले।
क्योंकि अभी भी समाज की जड़ों में लगे हैं दकियानूसी सोच के घुन।
सज रही है तो पक्का किसी आदमी के लिए,गलत तो पक्का कर ही रही होगी।
अरे! शास्त्रों तक में देवी का कोई स्वरूप श्रृंगार के बिना पूरा नहीं है।फिर भी वो बन के देवी ही रहे।
वाह! कितनी पसंद हैं हमारे समाज को उजड़ी हुई औरतें ( देवियां)
कितनी गहरी जकड़न है इस सोच की।

समीक्षा द्विवेदी







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