ग़ज़ल-251/2022
मुझमें था फिर भी लापता ही रहा
उम्र भर मुझसे वो जुदा ही रहा
राह उनकी मैं देखता ही रहा
जो गया क़ब्र में गया ही रहा
मैं भी नाराज़ उससे था ताउम्र
वो भी मुझसे ख़फ़ा ख़फ़ा ही रहा
थीं शरीफों की खिड़कियाँ तक बन्द
और दर रिन्द का खुला ही रहा
रौशनी ले गए जहां वाले
साथ मेरे बुझा दीया ही रहा
वक़्त के साथ हो गए सब ख़ाक
था ख़ुदा और बस ख़ुदा ही रहा
तेरी ज़ुल्फ़ों में खो गया जो भी
उम्र भर उनमें गुमशुदा ही रहा
एक जैसे ही ज़ख़्म रोज़ मिले
रोज़ खंज़र मगर नया ही रहा
पार उतर भी गए मेरे अहबाब
मैं किनारे पे सोचता ही रहा
दूरियाँ कम हुईं तो जिस्मों की
दरमियाँ दिल के फ़ासला ही रहा
फोन मुंसिफ को आ गया हर बार
फ़ैसले को वो टालता ही रहा
मंज़िलें थीं तेरे मुक़द्दर में
अपनी क़िस्मत में रास्ता ही रहा
जिस्म तो ज़र्द पड़ गया "नाकाम"
ज़ख़्म जो था हरा, हरा ही रहा
© नाकाम
उम्र भर मुझसे वो जुदा ही रहा
राह उनकी मैं देखता ही रहा
जो गया क़ब्र में गया ही रहा
मैं भी नाराज़ उससे था ताउम्र
वो भी मुझसे ख़फ़ा ख़फ़ा ही रहा
थीं शरीफों की खिड़कियाँ तक बन्द
और दर रिन्द का खुला ही रहा
रौशनी ले गए जहां वाले
साथ मेरे बुझा दीया ही रहा
वक़्त के साथ हो गए सब ख़ाक
था ख़ुदा और बस ख़ुदा ही रहा
तेरी ज़ुल्फ़ों में खो गया जो भी
उम्र भर उनमें गुमशुदा ही रहा
एक जैसे ही ज़ख़्म रोज़ मिले
रोज़ खंज़र मगर नया ही रहा
पार उतर भी गए मेरे अहबाब
मैं किनारे पे सोचता ही रहा
दूरियाँ कम हुईं तो जिस्मों की
दरमियाँ दिल के फ़ासला ही रहा
फोन मुंसिफ को आ गया हर बार
फ़ैसले को वो टालता ही रहा
मंज़िलें थीं तेरे मुक़द्दर में
अपनी क़िस्मत में रास्ता ही रहा
जिस्म तो ज़र्द पड़ गया "नाकाम"
ज़ख़्म जो था हरा, हरा ही रहा
© नाकाम