ग़ज़ल-251/2022
मुझमें था फिर भी लापता ही रहा
उम्र भर मुझसे वो जुदा ही रहा
राह उनकी मैं देखता ही रहा
जो गया क़ब्र में गया ही रहा
मैं भी नाराज़ उससे था ताउम्र
वो भी मुझसे ख़फ़ा ख़फ़ा ही रहा
थीं शरीफों की खिड़कियाँ तक बन्द
और दर रिन्द का खुला ही रहा
रौशनी ले गए जहां वाले
साथ मेरे बुझा दीया ही रहा
वक़्त के साथ...
उम्र भर मुझसे वो जुदा ही रहा
राह उनकी मैं देखता ही रहा
जो गया क़ब्र में गया ही रहा
मैं भी नाराज़ उससे था ताउम्र
वो भी मुझसे ख़फ़ा ख़फ़ा ही रहा
थीं शरीफों की खिड़कियाँ तक बन्द
और दर रिन्द का खुला ही रहा
रौशनी ले गए जहां वाले
साथ मेरे बुझा दीया ही रहा
वक़्त के साथ...