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शब्द साहित्य
विथावान

वो उमड़ता हुआ
इठलता हुआ
अहंकार....
पल रहा हैं
मनुष्य और नारी में
अभिमान....
जैसे समंदर की लहरों में उछल रहा हैं
वो नदियों के आवेग में उमड़ रहा हैं
मनुष्य और औरत में मिजाज पल रहा हैं
तुम्हारे मिजाज में भी यही अंश हैं
गुण हैं...
जो रावण में था
कौरवों में था
वही मिजाज फिर उमड़ रहा हैं
इंसान अपने अपने गुण से चल रहा हैं
वेग में उमड़ी हलचल जो हलाकन मचाती हैं
शांत होने पर अफ़सोस में रह जाती हैं
इस सृष्टि के परिवार में
कोई उदंड हैं कोई शांत हैं
सब परिचित हैं अपने अपने अहंकार से
अंततः..... अफ़सोस.... जो अहंकार के
परिणाम का अंतिम पड़ाव हैं
एकदम एकांत, शांत और मौन जनशून्य
अवला के मिजाज का अंत विथावान हैं
बस यही अहंकार का परिणाम हैं...!!
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मजबूरियां

देर रात तक आंखें टक टकी लगाए बैठी हैं
घड़ी की सुई... टक.. टक... टक....!

मन में उमड़ते हैं कई उलझें हुए विचार
दिल होता रहा उसका धक.. धक.. धक...!!

ये आस उसकी हैं जो
पिता के आने के इंज़ार में हैं
जो लोग अक्सर नौकरी के लिए
बहार दूसरे शहर जाया करते हैं.

ऐसे बच्चे अक्सर मन मार कर
पिता के आने के इंतजार में
सों जाया करते हैं

ऐसी ही कई मजबूरीयां हैं जो
अपनों को गैर बनया करती हैं
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नामचीन

नफरते उगलते हैं
आम लोगों से वो दूर चलते हैं
छपते हैं वो पेज थ्री पर
क्योंकि वो नंगे नामचीन हैं

नंगे गरीब भी हैं
वो नामचीन नहीं होते
फर्क लिवास और सोच का हैं
वो छपते हैं अखवारों में
जब चुनाव होते हैं
तब गरीब छपते हैं
और वो नामचीन होते हैं

नेता हर नंगे गरीब के साथ होता हैं
वोट लेता हैं, सत्ता में आता हैं
गरीब वहीं के वहीं रहता हैं
तब नेता नामचीन होते हैं

चमक दमाक के लोग
अपवाद पैदा कर ख्यात होते हैं
वो आम जनमानस में द्वेष होते हैं
बेशर्म की हदों के बाद भी बेशर्म रहते हैं
यही नामचीन हैं जो प्रख्यात होते हैं

कई लोग इस मशहूरियत के अंधे होते हैं
निकल पड़ते हैं नमी के गुम नाम में
उघड़ते बदन के परवान होते हैं
वो भी विख्यात होते हैं
जब कहीं बलात्कार होते हैं

सवाल मन में हर वक़्त उमड़ता हैं
क्या हर नामचीन कीर्तिवान होते हैं...?
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मातम नहीं मनाते

बड़े लोग हैं वो किसी की
मईयत में मातम नहीं मनाते
सफ़ेद लिवास पहन कर
काला चश्मा आंखों में हैं लगाते

या किसी की मौत पर उनके
आंखों से आंसू नहीं आते
या मौजूद जनमानस से वो
अपनी नज़रे मिला नहीं पाते

या फिर फैसन के इस दौर में
इसी तरह हैं मातम मनाते
या आत्मग्लानि में आकर वो
अपनी उपस्थिति हैं जताते
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लिहाज

बहुत कुछ छू जाता हैं
दिल को मन को और बदन को
जब कोई
लिहाज़ या वे-लिहाज़ से कहे
सहम जाता हैं दिल
मायूस हो जाता हैं मन
तिलमिला जाता हैं बदन
जब अपनी ही अंगुली
पकड़ कर युवा हो गए बचपन
जब उम्र की लिहाज़ का अन्दर हो
तब रोता हैं दिल, मन और आत्मा
बहुत कुछ कर गुज़रने को अब करता हैं मन
जब आज़ादी की हदें लांघ जाता हैं
आज का ये युवा मन.
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अपने हिसाब से
वो ढ़कती हैं बदन अपना
फ़टे हुए लिवास से
बचती हैं वो अपनी इज्जत
अपनी हैसियत के हिसाब से

के
शर्म हया लाज वर्करार रहे
बहुत छुपी हुई नज़रे हैं
जो
घूरती हैं अंग अंग को
मर्द अपने अपने मिज़ाज़ से
फिर
लूट जाती हैं इज्जत
औरत के अपने अपने मिज़ाज़ से
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क्या तुमने देखें हैं व्याकुल चेहरे....?

व्याकुल चेहरे
जिसके पीछे छुपा है
जिंदगी का गुजरा हुआ जज्बा
कुछ नकारते हैं
कुछ स्वीकारते हैं
उनकी की बात को
जो
सुनते नहीं देखते नहीं किसी के
हालत को
ये
दौर हैं युवा पीढ़ी का
दिशा हीन शोर में गुम
कई किशोर चेहरे...
कई गुज़र गए कई सवर गए
जिन्होंने देखें अपनों के व्याकुल चेहरे
वहीं जा कर मंजिलों पर हैं ठहरे...!
इन व्याकुल चेहरों में छुपे
होते हैं कई स्वप्न
कई हंसरतें
कई दर्द
जो दिखते नहीं
जिन्हे आभास होता
वहीं जनता हैं क्या होते हैं
क्यूं होते हैं
वो व्याकुल चेहरे....
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खुद वा खुद से खुद को

इस ज़माने में तुझको अकेले ही चलना होगा
खुद वा खुद से खुद को लड़ना होगा

औरों की देख हसरतें ना तुझको मचलना होगा
खुद वा खुद से खुद को बदलना होगा

कांटों-ए-अंगार की राह पर तुझे निकलना होगा
खुद वा खुद से खुद को सम्हलना होगा

आसमा-ए-ऊचाई से ज़मी पे तुझको देखना होगा
खुद वा खुद से खुद को चमाकना होगा
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औरत बदल रही हैं

अवलाएं कल की आज बदल रही हैं या सम्हल रही हैं
औरत को आज के मर्दों की बातें अब क्यों खल रही हैं
लांघ आई घर की देहलीज मर्यादा घर की खल रही हैं
संस्कृति के परिधानों की अब परिभाषाएं बदल रही हैं
ममता और प्रेम के आंचल में अब मोहब्बतें पल रही हैं
मर्दों की इज्जत पर आजकी औरतों की जूती चल रही हैं
औरत आज की पुरुषों के परिधानों में छवी बदल रही हैं
अभिलाषाएं अब औरत की खुले आसमां पर मचल रही हैं
कल की अवलाएं आज की औरत में छवी अपनी बदल रही हैं
औरत आज की बेहद बदल रही हैं.....!
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हर मन में
मैं चलता हूं हर मन में
मैं उड़ता हूं उन्मुक्त गगन में
मैं युवा हूं हर जन के तन मन में
मैं घिरा हुआ हूं तमन्नाओ के स्वप्न में
घनघोर अंधियां उमड़ती हैं मन में
फिर क्यों बैठा हूं मैं इस चिंतन में
मैं क्यों बंध के बैठा हूं बंधन में
✴️✴️✴️✴️✴️समाप्त✴️✴️✴️✴️✴️