...

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क्यों नहीं
घर सुलगता है
हम उदासीन हैं,
आश्चर्य है,
सुलगते घर को देख
क्यों नहीं उठती
दिल में कचोट।
क्यों नहीं होता
मन अशांत।
सुलगते घर में
मरते हैं निर्दोष।
मरता है कोई
भूख, बेबसी और
आत्मघात से।
कुचलता है कोई
लारियों के बीच।
मरते हैं इंसान,
दिन-प्रतिदिन हैवानों की
बेरहम बंदूकों से।
इस जलते घर में
निर्दोष को मरता देख
हम कुछ क्यों नहीं करते?
शायद सोचते हैं,
घर, घर ही तो है;
और भी हैं,
एक जलेगा,
कोई और मिलेगा।
मृत्यु तो होगी ही,
न जाने कितने मरते हैं।
लेकिन, मुखिया रो रहा है।
नहीं देख सकता वह,
अपना सुलगता घर।
निर्दोष एवं असहाय की
नृशंस हत्या।
नहीं सुन सकता वह,...