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क्यों बसूं सर्वदा मैं ग़म के नगर में
क्यों बसूं सर्वदा मैं ग़म के नगर में

उस पार बहुत दूर कहीं एक दीपक झिलमिलाता
कहते सब मरीचिका पर मैं दौड़ता जाता
बसने वाला नगर में मैं अकेला ही नहीं हूं
जानता हूं क्यों यह जग मुझे पागल कह जाता

औरों को दोष दे रहे, किस्मत को सब दोष दे रहे
गिला नहीं बस मैंने ही देखा खुद को उस रात आईने में
क्यों बसूं सर्वदा मैं ग़म के नगर में

क्यों बताऊं गम के कितने तीर कैसे झेल पाए
क्यों गिनाऊं कितनी बार मंद मंद मुस्कुराए
विलाप यह दिल अब और नहीं करना चाहे
इसी बात ने ना जाने कितने नज़्म लिखवाए

किनारे बैठ खुद को क्यों कोसूं घड़ी घड़ी में
इससे तो बेहतर है डुबकी लगाना जीवन की नदी में
क्यों बसूं सर्वदा मैं ग़म के नगर में

आंधियों से भी ना डरे वृक्षों जैसा शांत मन हो
बिजलीओं को भी झेल जाए मन विशाल गगन हो
बाधाएं गिराए हजार बार हौसला ना कम हो
उस पार मिलना मुझे चाहे बस कांटों का वन हो

मंजिल मिले तो देखो बनता एक नया पथ है
ना मिले तो संतुष्टि कुछ नया सीखा इस जग में
क्यों बसूं सर्वदा मैं ग़म के नगर में

मंदिर मस्जिदों में देखो कितने पांव कतारें लगा रहे हैं
ईश-मिलन की आस नहीं, डर और इच्छाओं से जा रहे हैं
प्रकृति की अदा निराली, कोयल कू कू गा रही है
संघर्ष करने वालों को जैसे खुद ही ईशगान सुना रही है

किस्मत किस्मत बोल कर रोए क्यों मानव हर बात में
शूरवीरों को ही संघर्ष मिला यहां ईश्वरीय उपहार में
क्यों बसूं सर्वदा मैं ग़म के नगर में

चल रहा हूं जागा हूं जब से भले मन अपरिपक्व था
पा रहा हूं अब शीतल मस्तिष्क रोज हटाता जमा मैल था
सीख रहा हूं अब भी सीखना है बहुत सारा इस असीम संसार में
कैसे कह दे कोई ज्ञानी बन गया इस छोटे अंतराल में

दिखता है अगर जोशीला रंग मेरे हर शब्द में हर बात में
लहू बनकर उतरा होगा दिल से आज कलम में, जबान में
क्यों बसूं सर्वदा मैं ग़म के नगर में
© Ashutosh Kumar Upadhyay





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