घर द्वार
मन में अरमान लिये। कुछ कर जाने की चाह लिये। चल दिये आपनो से कोसों मिल दूर । एक अंजान शहर में अजनबी बनकर। वहां के जल, नदीऔर सड़के न पाहचान सका मुझे।
दर्दर भटका पर पीजरा ना मिली मेरे बस के।
पर कोई शिकवा शिकायत न थी उस शहर से।
क्योंकि सुना था बचपन से लाखों आए यहां।
मन में अरमान लिये।
कुछ कर जाने की चाह लिये ।
लाख जुल्म किया गया मुझ पर।
लेकिन गांव ना मैं भुला सका और नहीं गांव की गलियों को शायद।
क्योंकि जब भी मैं शांत होकर बैठता गांव की हरियाली बरबस अपनी ओर आकृष्ट करती।
फिर भी मैं न आ सका गांव की चौखट पर क्योंकि चलें थे।
मन में अरमान लिये। कुछ कर जाने की चाह लिये।
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दर्दर भटका पर पीजरा ना मिली मेरे बस के।
पर कोई शिकवा शिकायत न थी उस शहर से।
क्योंकि सुना था बचपन से लाखों आए यहां।
मन में अरमान लिये।
कुछ कर जाने की चाह लिये ।
लाख जुल्म किया गया मुझ पर।
लेकिन गांव ना मैं भुला सका और नहीं गांव की गलियों को शायद।
क्योंकि जब भी मैं शांत होकर बैठता गांव की हरियाली बरबस अपनी ओर आकृष्ट करती।
फिर भी मैं न आ सका गांव की चौखट पर क्योंकि चलें थे।
मन में अरमान लिये। कुछ कर जाने की चाह लिये।
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