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ग़ज़ल: जबसे वो महफ़िलों में आई नहीं
२१२२/१२१२/२२//११२
जबसे वो महफ़िलों में आई नहीं
मैंने भी शाइरी सुनाई नहीं
उम्र भर की सजा कुबूल मुझे
पर तेरी कैद से रिहाई नहीं
और ज़ख़्मों की चारासाजी है
इश्क के मर्ज़ की दवाई नहीं
मैं तो तुझमें शरीक था हरदम
तूने ही हाजिरी लगाई नहीं
गर ये दुनिया है होश वालों की!
यार पीने में फिर बुराई नहीं
चंद ग़ज़लें हैं मेरी दौलत 'शम्स'
और मेरी कोई कमाई नहीं
© 'शम्स'
#WritcoQuote #poem #Shayari #ghazal
जबसे वो महफ़िलों में आई नहीं
मैंने भी शाइरी सुनाई नहीं
उम्र भर की सजा कुबूल मुझे
पर तेरी कैद से रिहाई नहीं
और ज़ख़्मों की चारासाजी है
इश्क के मर्ज़ की दवाई नहीं
मैं तो तुझमें शरीक था हरदम
तूने ही हाजिरी लगाई नहीं
गर ये दुनिया है होश वालों की!
यार पीने में फिर बुराई नहीं
चंद ग़ज़लें हैं मेरी दौलत 'शम्स'
और मेरी कोई कमाई नहीं
© 'शम्स'
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