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जरा [जीवन की अंतिम अवस्था]
शिथिल ये देह हो रही,
धड़कनें भी मंद हैं
ओष्ठ सुर्ख हो चले
श्वास भी अब चंद हैं
हाथ कंपकपा रहे
न खुद को अब संभालते
पैर डगमगा रहे
कही भी बढ़ते जा रहे
आंख की ये रोशनी
धुंधली सी अब हो रही
कर्ण की इंद्रियां भी
अब न बात कोई सुन रही
मुस्कान है लाचार सी
उम्र के आचार की
ढल रही है शाम कोई
अनुभवों के विचार की
तेज मुख का छिन गया
अब झुर्रियां तमाम हैं
हृदय भी शोर कर रहा
अब यहां क्या काम है
हवा सी गतिशीलता
सूर्य सा था तेज वो
बढ़ चला डगर पे
साहस से लबरेज वो
पर अब ना वो बात है
जरा तेरी ये कह रही
जीवन का सूर्य ढल रहा
अस्थियां जर्जर हुई
है समय निकट
समेट ले
यादें अपने साथ में
जाना है फिर वही
आए जहां से खाली हाथ थे
नियति की बागडोर का
छोर अब तू छोड़ दे
मायाविहीन कर स्वयं को
आस्था से जोड़ ले
अंत से प्रारंभ हो
संबंध अंत से हो
जा शरण में जब प्रभु के तो
भेंट उनकी एक संत से हो।
धन्य जीव इस धरा का
जीवनी महान कर
डगर पार कर लिया
अब तू विश्राम कर।
© कलम की जुबां से__✒️
धड़कनें भी मंद हैं
ओष्ठ सुर्ख हो चले
श्वास भी अब चंद हैं
हाथ कंपकपा रहे
न खुद को अब संभालते
पैर डगमगा रहे
कही भी बढ़ते जा रहे
आंख की ये रोशनी
धुंधली सी अब हो रही
कर्ण की इंद्रियां भी
अब न बात कोई सुन रही
मुस्कान है लाचार सी
उम्र के आचार की
ढल रही है शाम कोई
अनुभवों के विचार की
तेज मुख का छिन गया
अब झुर्रियां तमाम हैं
हृदय भी शोर कर रहा
अब यहां क्या काम है
हवा सी गतिशीलता
सूर्य सा था तेज वो
बढ़ चला डगर पे
साहस से लबरेज वो
पर अब ना वो बात है
जरा तेरी ये कह रही
जीवन का सूर्य ढल रहा
अस्थियां जर्जर हुई
है समय निकट
समेट ले
यादें अपने साथ में
जाना है फिर वही
आए जहां से खाली हाथ थे
नियति की बागडोर का
छोर अब तू छोड़ दे
मायाविहीन कर स्वयं को
आस्था से जोड़ ले
अंत से प्रारंभ हो
संबंध अंत से हो
जा शरण में जब प्रभु के तो
भेंट उनकी एक संत से हो।
धन्य जीव इस धरा का
जीवनी महान कर
डगर पार कर लिया
अब तू विश्राम कर।
© कलम की जुबां से__✒️
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