जरा [जीवन की अंतिम अवस्था]
शिथिल ये देह हो रही,
धड़कनें भी मंद हैं
ओष्ठ सुर्ख हो चले
श्वास भी अब चंद हैं
हाथ कंपकपा रहे
न खुद को अब संभालते
पैर डगमगा रहे
कही भी बढ़ते जा रहे
आंख की ये रोशनी
धुंधली सी अब हो रही
कर्ण की इंद्रियां भी
अब न बात कोई सुन रही
मुस्कान है लाचार सी
उम्र के आचार की
ढल रही है शाम कोई
अनुभवों के विचार की
तेज मुख का छिन गया
अब झुर्रियां तमाम...
धड़कनें भी मंद हैं
ओष्ठ सुर्ख हो चले
श्वास भी अब चंद हैं
हाथ कंपकपा रहे
न खुद को अब संभालते
पैर डगमगा रहे
कही भी बढ़ते जा रहे
आंख की ये रोशनी
धुंधली सी अब हो रही
कर्ण की इंद्रियां भी
अब न बात कोई सुन रही
मुस्कान है लाचार सी
उम्र के आचार की
ढल रही है शाम कोई
अनुभवों के विचार की
तेज मुख का छिन गया
अब झुर्रियां तमाम...