...

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बस्ती।
क्या शरीफों की बस्ती हैं!
यहां तो बेईमानी हसती हैं।

झूठी मुस्कान,झूठे वादें है,
गारंटी दे रही एक हस्ती हैं।

क्यों दे गाली किसी कुर्सी को ?
बेईमानी तो रगों में बसती हैं।

उन के झूठ के महलों को देख,
आवाम मकान को तरसती हैं।

देश की यात्रा करने वालों,
ज़िंदगी मौत में झुलसती हैं।

सियासतों ने मज़हब क्या चुना !
जल रहीं इंसानों की बस्ती हैं।

ख़्वाब बह गए बारिशों में सारे,
अब हक़ीक़त धूप बन के बरसती हैं।

लोग उतर आए हैं खून खराबे पर,
क्या... ज़िंदगी इतनी सस्ती हैं?

© वि.र.तारकर.