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जमे हुए ख़त
आज काफी वक़्त के बाद मैंने
कमरा साफ किया
तो कुछ मिला मुझे
थी एक कागजों की गड्डी
हालत थी जैसे बिल्कुल ही रद्दी
हल्का सा पीलेपन को साथ लिए हुए
वो कागज़, एक दूसरे में चिपके हुए थे
जैसे ,किसी ने उनको एक दूसरे के ऊपर रखकर
पानी डाला हो
और एक लंबे अरसे के बाद उसको निकाला हो
उन कागजों पर बहुत कुछ लिखा हुआ था
मोहब्बत ,उल्फत , वफा, कसम,
कुछ इस तरह के अल्फ़ाज़ ज़्यादा दिख रहे थे
और वो कागज़ एक दूसरे से चिपके हुए थे
बातों में जैसे वो लिपटे हुए थे
यहां तक कि ,
एक कागज़ की सियाही दूसरे कागज़ पर आ गई
लिखावट में जैसे तब्दीली सी आ गई
वफा, बेवफा हो गया,
मोहब्बत, नफरत के पास आ गई
यकीन, धोखा हो गया ,
यक्सियत, मुनाफ़िकत के पास आ गई
जोड़ जहां लिखा था, वहां तोड़ सा हो गया
सीधी सड़क में जैसे मोड़ सा हो गया
जिसे होना था अपनी जगह पर
वहां से वो हट गया
लिखा हुआ था कुछ ,
पर कुछ और सा हो गया
ऐसा लगा मेरे लिए ये अल्फ़ाज़ एक से हो गए
मतलब इनके जो भी थे,जाने कहां खो गए
कौन जाने ये वही ख़त हैं जो मेरे पास आते थे
जिनको पढ़कर हम फूले नहीं समाते थे
आज, देखो ना इनका क्या हाल हो गया है
जवाब ही जवाब होते थे इनमें मगर अब ये खुद सवाल हो गया है
कहां गया वो शक्स
जो इनको लिखता था
कहां गये वो ज़बां ओ लब
जो इनको बेसब्री से पढ़ते थे
कहां गया वो क़ासिद
जो इन खतों को लाता था
कहां गई वो आंखे
जो इनके इंतजार में एक सिम्त खुले रहती थी
लेकिन अब लगता है कि
वो लिखना
वो पढ़ना
वो इंतजार करना
वो कासिद का आना
वो आंखे, थकाना
सब जैसे वक़्त के उस हिस्से में जम गए हैं
इतना कि मेरे गिरे हुए आसुओं ने
इन खतों को जमा दिया
और खतों में हुई गलतियों को
दुरुस्त कर दिया
ज़्यादा कुछ नहीं किया
बस खतों का मतलब बदल दिया
हां, अब वो ख़त ब मायने हो गए हैं
चेहरा दिख रहा है उसमे
जैसे आईने हो गए हैं
इसीलिए अब हम आइना नहीं रखते
सही पहचाना,
वो जमे हुए ख़त
अब मेरे लिए मायने नहीं रखते

✓ शाबान "नाज़िर"

© SN