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वो चाँद छुपा जा रहा था!
मेघ काले थे,
शायद बरसने वाले थे;
रैना होने को थी, शाम ढलने को थी,
लालिमा बिखेरे सूर्य जाने को था;
तब एक तरफ़ से नूर ले,
वो चाँद छुपा जा रहा था!
.
आँख-मिचौली खेलते वो आने को तैयार न था,
यहाँ अधीर मन अर्श से नज़रें हटाने को तैयार न था;
इस चकोर को बेचैन छोड़,
ढलती शाम में अपनी हल्की सी चाँदनी बिखेरे,
बादलों की आड़ में खेल रहा था,
वो चाँद छुपा जा रहा था!
.
उस क़मर ने इस महरुम दिल को किसी की याद दिला दी,
इस ख्वाबीदा मन को, ख्वाब में ही किसी की नज़रें दिखा दीं;
अर्श अपने सारे रंग बिखेर रहा था,
तारे भी थे, रैना भी थी,
पर वो चाँद छुपा जा रहा था!
.
उन काले बादलों में भी जैसे फरिश्तों का नूर बन वो दिख गया,
अगले ही पल इस क़मर के प्यासे को छोड़ वह चला गया;
इस बार मेघ घने थे,
जैसे काले पर्वत हों,
तन्हा मन उस क़मर के त-अस्सुर में रो रहा था;
पर वो आया,
काले बादलों में जैसे रोशनी का अक़ीदा लिए,
वापस जाने को था,
वो चाँद छुपा जा रहा था!
.
ऐसे ही इश्क़ की याद आयी,
लगा की चाँद नहीं, वही हो,
जो अपना तअससुर छोड़,
अपनी हाजत दिये जाते थे,
एक झूठा ख्वाब से थे;
वैसे ही ये चाँद, कभी रहकर,
अचानक दूर जा रहा था,
वो चाँद छुपा जा रहा था!!