...

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रसोई संग अपना नाता
रसोई संग अपना नाता,
क्या खूब लिखा विधाता..?
मालूम न था एक दिन यही
मेरी पहचान बनेगा...??
जब कभी उदास होती हूं ,
या जब कभी खुश होती हूं
रसोई में ही हंस रो लेती हूं
कभी करछुल संग नाच गा लेती हूं,
तो कभी सीटी पे तान सजा लेती हूं ..!
कभी बर्तनों को पटक कर,
कुछ बुदबुदा लेती हूं
तो कभी मिक्सी चला कर
दिल का भड़ास निकाल लेती हूं
कभी थाली को ही आईना समझ
खुद को निहार लेती हूं...!!
रसोई में ही तो अविष्कार करती हूं..!
कभी विरह तो कभी मोहब्बत लिखती हूं.!
कभी-कभी सोचती हूं,
अगर ये रसोई मुझे ना भाता,
तो मेरा क्या होता.......??
आजकल लोगों का शौक है
घूमना शॉपिंग करना.वगैरा वगैरा!
मगर अपनी तो आदत है तरकारी संग बतियाना।
दाल चावल नमक मिर्च सबको सजा कर रखना।।
सुबह सवेरे सबसे पहले दर्शन रसोई का करती हूं ।
यही मेरी कर्म क्षेत्र है और यही मेरी पूजा भी ,
यही मेरी गुरु है और यही मेरी गुरु दक्षिणा भी..!!
जब तन्हा स्वयं को कभी महसूस मैं करती हूं,
तो रसोई जाकर नए पकवान कुछ गढ़ती हूं..!
कभी-कभी लोग हमसे पूछते हैं,किरण
क्या तुम इन सब से ऊब नहीं जाती हो..?
भई..! मैं एक रचनाकार हूं ,
इन तन्हाइयों पर भी एक रचना रच लेती हूं।
अभी दो पंक्ति आपको भी सुनाती हूं,
तन्हाइयों संग चोली दामन सा है अपना नाता"
अब इन तन्हाइयों में कभी जी नहीं घबराता.!!
किरण