...

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जिंदगी
आसमान की और चली मैं देखो उड़ी मैं अपने पंख फैलाके ,इतराके, थोड़ी शर्मा के बस उड़ती ही चली...
ख्वाहिशों की उड़ान, अरमानों की उड़ान, आजादी की उड़ान उड़ती ही चली देखो पंख फैलाए उड़ी मैं...
मैं वही हूं जिसके पंख बढ़ने नहीं दिए, सबर ने नहीं दिए वक्त की पाबंदी, संस्कारों की अटकल , लोक लाज का दबाव..
ऑफ! लड़की हूं मैं..यही बहुत है यहां एक लफ्ज मे अपनी परेशानी कहने को, डर के नाम में सवार चल पड़ी मैं अपनी मंजिल की ओर कहां ,क्या और कितनी मंजिल यह तो समाज तय कर देता है । मैं तो वो हूं जो इसे तोड़ ना पाई..
एक और हजारों मेंबस काश के सपनों मैं नीचे रह गई।
उठाई हिम्मत आज मैंने लिखती हूं मैं अपनी बात जो जुबान से ना कर सकी।



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