...

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गुमशदा
दस्तूर - ए - वफ़ा ज़माने में निभाता है कोई?
क्यों है ख़ुद से खफा तुझको कहां मनाता है कोई?
गर्द फैली है कमरें में तेरी जब से उम्मीद से बैर।
पन्नों के सिवा तेरे कमरों में क्या ढूंढ पाता है कोई?
एक हुस्न एक इश्क़ और एक अधूरी सी मोहब्बत।
ज़िंदादिल तेरे कैफियत से कहां दिल लगाता है कोई?
तुझे तो है यकीन ख़ुद के ही तबाही का दम - ब - दम।
तबाह तेरे होने से भी क्या लौट कर आता है कोई?
सुनता नहीं ख़ुद की भी ऐसा गम है तेरा जहां में।
जहां में औरों के गम में कभी कहां साथ निभाता है कोई?
आज का दिन भी तेरी गुजरी है उम्दा ही ज़िंदादिल।
तेरी सलामती की दुआ ख़ामोशी से दे जाता है कोई?
हो जा तू ख़ुद की खोज में फिर से काफ़िर गुमशुदा।
तुझे ढूंढने की कोशिश में कहां तुझसे मिलने आता है कोई?
© ज़िंदादिल संदीप