...

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बचपन
निपट अकेले उछल- कूदकर,
जाते थे स्कूल कभी।
भय चिंता दुख दर्द कोई भी
चीज सताती थी न कभी।
अल्हर फिरते इधर-उधर
हम खूब खेलते बस्ती मे।
फ़िक्र कोई न कोई चिंता
रहते हरदम मस्ती में।
सिर्फ पढ़ाई और लिखाई,
काम न था कुछ खास।
इसी भांँति हम कूद फांँदकर
हो गए बी.ए. पास।

याद अभी भी वही गाँव की गलियाँ आती हैं।
बचपन की फिर वही, सुहानी याद सताती है।

बाग़ बगीचे दादाजी के,
कई फलों के पेड़।
आम के मौसम में लग जाते
थे आमों के ढेर।
अपने बाग़ का आम मगर
ना हमें सुहाता था।
आम दूसरों के चोरी से
तोड़ के खाता था।
चोरी के आमों में मिलती
अलग सी एक मिठास।
इसी भांँति हम कूद फांँदकर
हो गए बी.ए. पास।

अब भी बाग़ की कच्ची अमियाँ हमें बुलाती हैं।
बचपन की फिर वही, सुहानी याद सताती है।

गुल्ली-डण्डा, आंँख-मिचौली
कंचे खेला करता।
मुझे याद है बचपन में मै
खूब शरारत करता।
पाण्डे जी जो दिख जाते
मैं उन्हें चिढ़ाने लगता।
'पाण्डे जी पंडोल-डोल'
ये गाना गाने लगता।
पाण्डे जी फिर मेरी शिकायत
बाबा से कर जाते।
मगर बचाते पिटने से
कहते बच्चा है खास।
इसी भांँति हम कूद फांँदकर
हो गए बी.ए. पास।

वही शरारत वही प्यार, अब हमें रुलाती है।
बचपन की फिर वही, सुहानी याद सताती है।

✒️ कौशल किशोर सिंह


© Kaushal