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चौराहा
चौराहा

कुछ इस तरह से मश्ग़ूल है हालतेजिन्दगी,
ख़ुशी और ग़मो के बस जद्दोज़हद में !

दौराने सफर मैं मुख़्तिलिफ क़िस्म के लोग भी मिले,
कुछ हमसफ़र बने तो कुछ सरे राह छोड़ गए !

मौहब्बत करने की क़ोशिश में, कुछ तो नादानियाँ हुई,
जिनसे उम्मीद थी मौहब्बत की, उन्ही से दुशमनी हुई,!

सोचा था हमने की मुस्तक़बिल हमारा कभी तो सुधरेगा,
खुशनुमा बनाने की दौड़ में, यूँ ही बर्बाद हो गए !

जब भी कभी आइने के सामने, खड़े खुद को देखा है,
गुज़रे लम्हों को फिर से मैंने, सामने नज़र के पाया है !

क़िस्मत ने ये किस चौराहे पे खड़ा कर दिया "रवि",
किस राह को चुनू, मुझे कुछ सूझता नहीं !

राकेश जैकब "रवि"