शायरी: साक़ी-मयखाना
क्या करूँ मयखाने का दस्तूर ही कुछ ऐसा है,
चाहता है कौन जाना बज़्म से साकी तेरे।
आरज़ू औ जुस्तज़ू में कौन अब भटके भला,
लौट आये फिर क़दम साक़ी तेरे मयखाने...
चाहता है कौन जाना बज़्म से साकी तेरे।
आरज़ू औ जुस्तज़ू में कौन अब भटके भला,
लौट आये फिर क़दम साक़ी तेरे मयखाने...