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शायरी: साक़ी-मयखाना
क्या करूँ मयखाने का दस्तूर ही कुछ ऐसा है,
चाहता है कौन जाना बज़्म से साकी तेरे।

आरज़ू औ जुस्तज़ू में कौन अब भटके भला,
लौट आये फिर क़दम साक़ी तेरे मयखाने में।

कुछ इस तरह से जाम है साक़ी पिला रहा,
हर घूंट के ही साथ मेरी प्यास बढ़ गयी।

साक़ी न पूछ मुझसे पिला बस हिसाब से,
तुझको पता है खूब जरूरत हरेक की।

साक़ी ये मैक़दा भी तेरा मय से कम नहीं,
चढ़ता वही ख़ुमार है दीदार कर इसे।

© शैलशायरी