...

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अनसुनी ख्वाएश।
अलहदा राहो पर,चल ही रहे हो,
फजा ओ का रुख ,मोड भी रहे हो।
इस दिल से भी अब दूर ,जा ही रहे हो।
यादो में भी धुंधला रहे हो।
आखें भी कहा रही मुन्ताझिर।
लज्जत-ए -गिरिया में,मेहरुम हम,
अपनी ही गालियो मे,बेगाने बन रहे है।
कुछ ज्यादा ही गुरुर था हमे,
हमारे ला-जवाल इशक पे।
अब आरजूओ की आग में जल रहे है।
किस्से तो हमने भी देखे थे,तुम्हारी नवाजिशो के।
फिर क्यूँ ये दामन ,खाली सा मेहसुस कर रहे है।
आने की तो वजह ही न रही,
फिर भी रुकने के बहाने ढुंढते जा रहे।