...

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इश्क़ और लम्हें
लम्हों के नाम पर हमारे पास बस वो एक इश्क़ ही था,
और उस लम्हें में भी मैं तन्हा था।
हर तारीख़ में उस इश्क़ का जिक्र था,
किसी ज़िक्र में वो तारीखें नहीं थी।
यूं तो कई सवेरे देखे थे उस मोहब्बत ने,
लेकिन वो सवेरे सिर्फ सुर्ख अंधेरों से गुजरें थे।
कहने को तो ' मैं 'उनके और ' वो 'मेरे साथ थे,
बस ' हम ' एक दूसरे के साथ नहीं थे।
मोहब्बत को मंज़िल तो नसीब थी,
लेकिन वो मंजिले ' दूरियों ' के रास्तों पर भटकी हुई थी।
इश्क़ में सब कुछ खिला- खिला और रंगीन सा था,
बस वो इश्क़ कुछ बेरंग और मुरझाया हुआ सा था।
लम्हों के नाम पर हमारे पास बस वो एक इश्क़ ही था,
और उस लम्हें में भी मैं तन्हा था।