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घर की बात
घर की बात
ये दीमकें भी कितनी जिद्दी हैं
मैं इन्हें घर की दीवारों पर
बार-बार खुरच देता हूँ
पर ये फिर से घर बना लेती हैं
इन चिट्टियों से पंगा लेना तो और भी है दुष्कर
जैसे कतार न हो इनकी ब्रह्मा की लकीर हो
दुबली ऐसी कि कहीं भी सुराख़ कर लें
वही हाल इन चूहों का है
सामने पड़ते ही मैदान खाली
इतने चौकन्ने कि आप देखते भर रह जाँय
अभी कल की बात है मेरी कमीज कुतर डाली
और एक रात तो सचमुच मुझे साँप सूंघ गया जब देखा छत की सीढ़ियों पर उसे छलबलाते
आखिर कोई क्या कर लेगा
टोह में दीवारों से चिपकी इन छिपकलियों का
सुइयां चुभोते मच्छरों का इन्द्रजाल रचती मकड़ियों का
दूध ढरकाती बिल्लियों का
छत की मुँडेरों पर लंबी पूँछ लिए बैठे वानरों का
रौशनदानों में आशियाने बनाती चिड़ियों का
छत की दरारों से झांकते जंगली फूल पौधों का पीपल के इन हठीले तनों का
जिन्हें काटना भी तो मना है
पर बहुत बार इनसे ही सीखा है बहुत कुछ
चिट्टियों से समूह में रहना जीना जरूरत पड़ने पर हाथियों को भी औकात दिखाना
अपनी पकड़ मजबूत बनाए रखना पीपल से
कभी हार न मानना दीमकों से
बहुत बार गिरगिटों को रंग बदलते भी यही देखा है
देखी है मूंछ की लड़ाई भी
और चिढाने पर तो हर किसी को गुस्सा आता है
ऐसा नहीं कि इनसे एक मैं ही डरता हूँ
दरवाजे की एक छिपकली पता नहीं क्या समझ
मुझे देख पलटकर भागती है
जबकि एक गिलहरी अमरूद के पेड़ों से उतर इतने पास आ जाती है कि मैं उसे छू सकता हूँ
छत पर ढीठ वानरों का मुखिया दाँत किटकिटाता है
कम से कम एक साम्य तो है
क्या पता कल यहीं लौटना हो
इन्हीं योनियों में
यह घर स्मृतियों का एक मकबरा है
हर कमरे से आती है स्मृति-गंध
जिस कमरे में रहता हूँ मैं
कभी रहते थे माँ और पिता
विदा हो चुकीं बेटियों का कमरा कब से खाली है
और एक अरसे से बंद है प्रवासी बेटे का
अब क्या छिपाना किसी से
मेरे साथ बस यही एक दिक्कत है
इस घर से अच्छी नींद
कहीं और नहीं आती
© daya shankar Sharan
ये दीमकें भी कितनी जिद्दी हैं
मैं इन्हें घर की दीवारों पर
बार-बार खुरच देता हूँ
पर ये फिर से घर बना लेती हैं
इन चिट्टियों से पंगा लेना तो और भी है दुष्कर
जैसे कतार न हो इनकी ब्रह्मा की लकीर हो
दुबली ऐसी कि कहीं भी सुराख़ कर लें
वही हाल इन चूहों का है
सामने पड़ते ही मैदान खाली
इतने चौकन्ने कि आप देखते भर रह जाँय
अभी कल की बात है मेरी कमीज कुतर डाली
और एक रात तो सचमुच मुझे साँप सूंघ गया जब देखा छत की सीढ़ियों पर उसे छलबलाते
आखिर कोई क्या कर लेगा
टोह में दीवारों से चिपकी इन छिपकलियों का
सुइयां चुभोते मच्छरों का इन्द्रजाल रचती मकड़ियों का
दूध ढरकाती बिल्लियों का
छत की मुँडेरों पर लंबी पूँछ लिए बैठे वानरों का
रौशनदानों में आशियाने बनाती चिड़ियों का
छत की दरारों से झांकते जंगली फूल पौधों का पीपल के इन हठीले तनों का
जिन्हें काटना भी तो मना है
पर बहुत बार इनसे ही सीखा है बहुत कुछ
चिट्टियों से समूह में रहना जीना जरूरत पड़ने पर हाथियों को भी औकात दिखाना
अपनी पकड़ मजबूत बनाए रखना पीपल से
कभी हार न मानना दीमकों से
बहुत बार गिरगिटों को रंग बदलते भी यही देखा है
देखी है मूंछ की लड़ाई भी
और चिढाने पर तो हर किसी को गुस्सा आता है
ऐसा नहीं कि इनसे एक मैं ही डरता हूँ
दरवाजे की एक छिपकली पता नहीं क्या समझ
मुझे देख पलटकर भागती है
जबकि एक गिलहरी अमरूद के पेड़ों से उतर इतने पास आ जाती है कि मैं उसे छू सकता हूँ
छत पर ढीठ वानरों का मुखिया दाँत किटकिटाता है
कम से कम एक साम्य तो है
क्या पता कल यहीं लौटना हो
इन्हीं योनियों में
यह घर स्मृतियों का एक मकबरा है
हर कमरे से आती है स्मृति-गंध
जिस कमरे में रहता हूँ मैं
कभी रहते थे माँ और पिता
विदा हो चुकीं बेटियों का कमरा कब से खाली है
और एक अरसे से बंद है प्रवासी बेटे का
अब क्या छिपाना किसी से
मेरे साथ बस यही एक दिक्कत है
इस घर से अच्छी नींद
कहीं और नहीं आती
© daya shankar Sharan
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