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घर की बात
घर की बात

ये दीमकें भी कितनी जिद्दी हैं
मैं इन्हें घर की दीवारों पर
बार-बार खुरच देता हूँ
पर ये फिर से घर बना लेती हैं

इन चिट्टियों से पंगा लेना तो और भी है दुष्कर
जैसे कतार न हो इनकी ब्रह्मा की लकीर हो
दुबली ऐसी कि कहीं भी सुराख़ कर लें

वही हाल इन चूहों का है
सामने पड़ते ही मैदान खाली
इतने चौकन्ने कि आप देखते भर रह जाँय
अभी कल की बात है मेरी कमीज कुतर डाली

और एक रात तो सचमुच मुझे साँप सूंघ गया जब देखा छत की सीढ़ियों पर उसे छलबलाते

आखिर कोई क्या कर लेगा
टोह में दीवारों से चिपकी इन छिपकलियों का
सुइयां चुभोते मच्छरों का इन्द्रजाल रचती मकड़ियों का
दूध ढरकाती बिल्लियों का
छत की मुँडेरों पर लंबी पूँछ लिए बैठे वानरों का
रौशनदानों में...