...

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मन का खेल
आखिर मन कब तक खुद को सुनेगा
कभी तो किसी को वो भी चुनेगा
करवाएगा उनसे मुलाकात
ना जानें तब कैसे कटेगी रात
तब रहेगा हर पल उसका इंतजार
ना आने देगा कोई खयाल
शायद तुम समझ बैठोगे उसे प्यार
नही रहेगा तब कोई मलाल
दिखाएगा सुनहरे ख्वाब वो
ना जानें दे जाएगा कितने जवाब वो
ना रहें गा तुम्हारी खुशी का हिसाब
हर पल लगेगा तुम्हें लाजवाब
जो चाहोगे मिलेगा बेहिसाब
जैसे मिल गया हो तुम्हें खिताब
ना रहेगा तुम्हें तुम्हरा होश
रहोगे बस उसमे ही मदहोश
जब होगा वो सामने
दिखेगा तुम्हें एक अलग ही जोश
समझ बैठोगे खुद को हीरो तुम
तब देखना ये मन खिलवाएगा
तुम्हे एक ऐसा खेल
तुम होने लगोगे खुद की ही नजरो में फेल
फिर पनपे गा एक शक का कीड़ा
खो बैठोगे उसे जिसे समझ बैठे थे तुम हीरा
ना सह पाओगे तुम वो पीड़ा
ना सह पाओगे तुम वो पीड़ा
तब समझ आएगा ये मन का खेल
तब लगेगा तुम्हें तुम्हारे चारो तरफ है कोई जेल
कैद होके उसमे तुम रहोगे बस खुदमे गुम
तब मन  खुद को सुनेगा
आखिर मन कब तक खुद को सुनेगा,
आखिर मन कब तक खुद को सुनेगा ।
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