...

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मिज़ाज़ -ए- गर्मी
मिज़ाज़ में ग़र्मी ,ज़ुबां पे तल्ख़ी छाई है ,
न जाने ग़र्म मौसम की तास़ीर है या फिर
कोई आज़माइश है।

लोगों के दिल तोड़ने लगें हैं ,
हम भी लोगों को तौलने लगे हैं,
मेरे अपनों समझ जाना, बेग़ानों सभंल जाना ,
कुछ ऐसे ख़राब हम होने लगें हैं ,
के जी भर- भर के सच बोलने लगें हैं।

मीठी ज़ुबानी पहले भी न आती थी ,
अब तो ख़ास कड़वाहट लहज़े में घोलने लगें हैं,
दुश्मनी ख़ुद से यूं निभाने लगें हैं ,
हर अपने को दुश्मन बनाने लगें हैं।।
© khak_@mbalvi