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यादो का कल
भावो की रचना ओढ़कर ,मृदुभाषी वारो को साधकर
अंजुम भरे स्नेह का ,फिरता लिए दिन रैन सा
अंतर्निहित अफसाना सा ,बनता बिगड़ता नित नवल
छेड़े तरन्नुम राग सा , शीतल मलय की वात सा
कोमल कभी चितचोर बन, पर ताकता हो अधीर सा
फाटक सिराहने हो खड़ा ,निहारता पथ भंगिमा
गोचर सा हो इस सफर पर,न टोकता किसी को मगर
स्यामल सलोने सुंदर अगर,झांसे मे बुनते कई प्रहर
विह्रवल कभी ,विध्वंसक भी,उबरे नही सयाने इधर
हो मूक भी ,वाचाल भी,सूझी नही फिर भी डगर
अनुपम ,अनूठा यह वरन,थमता नही है वेग पर
प्रसरित सा है अद्भुत गगन,खामोशी सजती अदृश्य पर
पुकारता रिश्तो का स्वर,भंवर सा बन गुंजित कवल
है भागता जिस छोर पर,मूल्य न उसको मगर
हारा कही सुध हारकर ,होती नही सुगबुगाहट भी अब
रंगो का असंख्य विस्तार भर,रोचक बना यह रंगमंच
धागो से कल्पना के बुनता कल ,मोहक मधुर श्रृंगार कर
अंजाम क्या, आगाज कर, रोता कही हो अधीर बल
पोषित किया कर हर जतन ,निष्ठुर हुआ बन क्रूर छल
पुकारता बालक सा बन ,ला दो वही अनूठा क्षण
स्मृति का बक्सा खोल फिर,पुकारता है आ जा ओ! कल।
श्रेया मिश्रा