...

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हाँ, दो मुझे सजा...
मैने तुम्हें पसंद किया
मेरी बेकरारियों को
तुममे राहत मिली
मुझे लगा कि
तुम ही मेरी मंजिल हो
चांद की तरह
घटते बढते
मेरी रूह को
पूर्णमासी का आराम मिला
तो दो मुझे सजा...
तुम्हारे बिना इजाजत
तुम्हारी मर्जी से
बगावत करके
मैने तुम्हें बेपनाह चाहा,
तो दो मुझे सजा...
एक साथी की जरूरत
कौन प्राणी है...
जिसको नही होती...??
अकेली तुम भी थी,
जरूरी नही था कि
मुझे ही चूनो ..?
मैने तेरे कदमों मे
अपने ह्रदय के गुलशन से
असंख्य गुल बिखेर दिए
हूँ मै गुनहगार ??
तो दो मुझे सजा...
हाँ मै गुनहगार हूँ,
नींद उडाया है तेरी
तुम्हारे दिल मे पल पल
अपनी यादों की
शहनाई बजाई है
मेरे प्यार ने
तुम्हारे दिल को
उस मुकाम पे लाया
जहाँ सिर्फ चाहत की चाह रही
पर कहते है न...
इस मिथ्या जगत मे...