...

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सोच
एक अंजान से शहर में भटक गई हूं,
पते का पर्चा भी गया है मुझसे छूट,
रास्ता बड़ा लंबा है, पता नहीं कब कहा मुड़ना है,
आख़िर कोई तो बताए मेरा ये शहर से क्या वास्ता है,
कल्पना के अंतरिक्ष में से, कल्पनाओ के उदगम से,
निकली ये कल्पना है, ये सीधा रास्ता मंजिल तक जाएगा या नहीं ये मेरी विडम्ना है,
ये विद्मना के साथ चलना थोड़ा कठिन है,
मंजिल नहीं मिलने का डर मुझे पता नहीं क्यूँ कमजोर कर रहा है,
यही सोच में भटक जाते हैं कुछ लोग वरना,
मंजिल उतनी दूर नहीं होती जितना हम सोच लेते हैं