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रामायण सार
रामायण सार
दस इंद्रियों के स्वामी दशरथ
जो कर्मेंद्रिया-ज्ञानद्रियां कहलाती है
कुशलता उनके संग में चलती, जानी कौशल्या के नाम से जाती है।।

आत्मा के प्रतीक है श्री राम जी
सीता चंचल मन कहलाती है
सजग होकर जो चलती हमेशा, दुनियां उस प्रेरणा को लक्ष्मण कहती है।।

त्याग की भावना जो हृदय बसती
भरत रूप बन जाती है
योद्धा बन जो विजय दिलाती, शत्रुघ्न वो संकल्पशक्ति कहलाती है।।

पवनपुत्र बन श्वास है चलती
जामवंत से; आत्मज्ञान की शिक्षा पाती है
योजना बनाकर जो कर्म है करते, सुग्रीव दुनियां उसको कहती है।।

विन्रम रूप में जो भावना बहती
निषादराज बन जाती है
अनुभव से जो हमें सिखाते, ऐसे जनक को दुनियां चाहती है।।

मन भटकाती मोह-माया जब
स्वर्ण मृग का रूप बनाती है
चंचल मन को मोहने लगती, आत्मा को भरमाती है।।

लक्ष्मण उसको सजग है करते
जो इंद्रियों के वश में होती है
बुद्धि-विवेक से काम न लेती, ख़ुद को; समस्याओं में उलझा पाती है।।

शुद्धता से परिपूर्ण नियत जो
वेदवती कहलाती है
निस्वार्थ प्रेम में जो अश्रु बहाती, उन्हें शबरी दुनियां कहती है।।

काम, क्रोध संग वासना बढ़ती
हृदय में जब अहंकार की ज्वाला धधकती है
रावण रूप में अतृप्त इच्छा आती, जो सोचने-समझने की शक्ति खोती है।।

बुद्धि बन मंदोदरी आती
अहंकार को खूब सुनाती है
आत्मा की उसको शक्ति बताती, जो अहंकार को समझ न आती है।।

विवेक बन फिर विभीषण आता
बुद्धि भी साथ निभाती है
मय ज्ञान-विज्ञान का तर्क भी देता, पर माया प्रबल शक्तिशाली है।।

मेघनाथ सा हठ फिर सम्मुख आता
सजगता ठहर सी जाती है
मार्ग प्रशस्त करती हर तरह से, लक्ष्मण को मूर्छिता आती है।।

तानों के विष भरे बाण है चलते
छल-बल संग बुराई भी साथ निभाती है
दुखों का कुंभकर्ण है साथ में आता, जो मौत भय दिखलाती है।।

दृढ़ संकल्प संग आगे बढ़ती
जब स्वयं पर आत्मा संयम पाती है
अहंकार का विनाश है करती, फिर सीता से मिल जाती है।।

अनुशासित व्यवहार से जीतते आत्माराम जब
थोड़ी कठोरता व्यवहार में आती है
पग-पग में उनके विघ्न डालती, अनेक मोह-माया रूप दिखाती है।।

दृढ़ निश्चयता तो सदा जीतती
जब सकारात्मकता को अपनाती है
संयम हमेशा शक्ति देता, जिसका प्राणवायु भी साथ निभाती है।।

खुद को जानना जिसका लक्ष्य
रामायण कहलाती है
स्वयं पर विजय ही विजय कहलाती, जो आनंद का स्रोत बन जाती है।।