शक़ की दीवारें
ख़ुद पर से भी कभी यूँ, भरोसा उठा देती हैं,
शक की दीवारें, नफ़रत को ही हवा देती हैं।
इस क़दर होती है रंज़ूर, तबियत अहल-ए-दिल,
रौशनी ये मोहब्बत की, आने कहाँ देती हैं।
हर तरफ तग़ाफ़ुल...
शक की दीवारें, नफ़रत को ही हवा देती हैं।
इस क़दर होती है रंज़ूर, तबियत अहल-ए-दिल,
रौशनी ये मोहब्बत की, आने कहाँ देती हैं।
हर तरफ तग़ाफ़ुल...