...

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आ चेत जाएं
चिंतनशाला के मनुजकांत !
वर्षों का चिंतन चिंता में परिणत देखा - अब भान करो ।
इस मूक प्रथा के अंबर में कब तक वंचोगे? ज्ञान करो ।।


किंचित प्रकाश उल्लास विषय ही अंत तिमिर सुखदायी है ।
जनझंझा क्रंदन अद्य विकल निज भू शम समर ले छायी है ।
भुक्षा के शूल किशोरों में दर्शन व नृत्य विधा कैसी?
तुम अग्रज वन तप त्याग करो सूखी विधि की समिधा कैसी ?
हैं तेरे ही तन घोर विकल कुछ तो अपनापन जान करो ।
वह वृषस्कन्ध होगा अदम्य यदि तेजशिला परिधान करो ।।

बरबस सरवस तन मान तजा ऐसी सेना श्रमिकों को भी
नहि मूढ़ कंपे कर कर विपन्न उन विधवा अश्रुलतों को ही
तुम वाग्युद्ध तल्लीन वृथा  वे कर्मपथी...