ज़िंदा रह अपने दम पर...
धुंए सा बेसबब उड़ता
जैसे एक सैलाब है
सहारे ढूँढता इंसान
जलती- सुलगती एक आग है ...
अजीब नहीं है क्या ये?
दाग है उस पर मिन्नतों
और बेबसी के आँसुओं के
दामन बेशक बेदाग है...
रहकर रुसवाइयों में
ख़ुद से लड़कर सीख
ज़िंदगी होगी कैसी कल
अगर निष्प्राण तेरा आज है...
जब अपने दम पर होता है
इंसान ज़िंदा हर तरह से
तब ही वो
सही मायने में
आबाद है, आबाद है...
© संवेदना
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