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ग़ज़ल
राधा राणा की कलम से ..✍️
..................
काश!कोई समझ पाता,हमें क्या चाहिए।
अपने रिश्तो में थोड़ी सी वफ़ा चाहिए।
करनी आती हमें अब,है शिक़ायत नहीं,
मोहब्बत अगर जुर्म है तो,सज़ा चाहिए।
इनका भरना तो मुमकिन नहीं अब रहा,
ज़ख़्म नासूर ना हो,इतनी दुआ चाहिए।
इन्सानियत हो तुम में,तुम रहो आदमी,
आदमी में नहीं हमको, खुदा चाहिए।
आंधी से बगावत,हमसे होती पर अब,
बुझने वाला नहीं हमको दीया चाहिए।
ए रूह! अब यह मोहब्बत नहीं चाहिए,
दर्द नहीं चाहिए,हमें ना ये दगा चाहिए।
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काश!कोई समझ पाता,हमें क्या चाहिए।
अपने रिश्तो में थोड़ी सी वफ़ा चाहिए।
करनी आती हमें अब,है शिक़ायत नहीं,
मोहब्बत अगर जुर्म है तो,सज़ा चाहिए।
इनका भरना तो मुमकिन नहीं अब रहा,
ज़ख़्म नासूर ना हो,इतनी दुआ चाहिए।
इन्सानियत हो तुम में,तुम रहो आदमी,
आदमी में नहीं हमको, खुदा चाहिए।
आंधी से बगावत,हमसे होती पर अब,
बुझने वाला नहीं हमको दीया चाहिए।
ए रूह! अब यह मोहब्बत नहीं चाहिए,
दर्द नहीं चाहिए,हमें ना ये दगा चाहिए।
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