...

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सर्वस्तिथि
हाँ, अब लिखने की आदत हो गई है
किस्सा बहुत है ,परन्तु सम्पूर्ण नहीं है
जीवन में समर्पित हूँ नहीं
आधूरापन की आदत हो गई है
सपनों को कैसे पिरोऊँ
दृढता की कमी हो गई है
कोई प्रेरणा काम न आ रही
खुद को एकाग्र कैसे रखुं

किसी कार्य में खुद को समाहित रखना
दूसरे की नकल करके खुद को बढ़ाते रहना
स्वयं की रुचि न पहचान पाना
अरूचिकर में लगे रहना
दिन - प्रतिदिन खुद को खपाते रहना
जीवन बोझ जैसा बन जाना
खुद का ही अपमान करना
माँ - पिता का दुःख हो जाना
इस किस्सा का बार - बार दोहराना
बहुतों का क़िस्सा है
सारा मसला ही अधुरा है
बिना धन का सब सूना - सूना है