Zindagi se shikayat
अजीब सी ये कश्मकश ज़िंदगी की ,
मेरे समझ न आती ,
जीते जी मरना और मरके जीना ,
हर पल है बतलाती !
हर शक़श को कांच की तरह तोड़ कर ,
खुआवों को हकीकत से जोड़कर !
खुद को खुद से मिलाकर ,
अधूरे पनो के सभी राज़ फाड़कर !
मुश्किलो से निकाल के और ,
उलझनों में डाल के ,
हंसती है ये कमबख्त ज़िंदगी !;
लेकिन ज़िंदगी की बंदिशों को पार कर ,
उसकी हंसी को फरेब बताकर !
आज मोत से हाथ मिला लिया हमने ,
अधूरे अरमानो के साथ ,
उसकी बेरहम खुआइशो को भी जला दिया हमने !
बिना पंखो के परिंदो पर अब उड़ चले ,
बाते कल को भूल के !
हर पल की यादो को लगा गले ,
ज़िंदगी को कुछ सबक और
मोत को जीना सीखा चले !
सुख दुःख पेहलु दो करम के ,
वेद पुराण है कहते ,
पहले ज़िंदगी की तमाम ठोकरे और !
फिर अनजाने सफर की गुमशुदा राहें ,
पर फिर भी जिन्हे स्वर्ग ही है जाना,
बो भी क्यों कभी मरना न चाहें !
© ajay thakur
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