...

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एक अधूरी ख्वाहिश......
ढलती उम्र में,
ढलती शाम का
हर ढलता सुरज
तुम्हारे साथ
छत पर बैठकर
देखने की
मेरी ख्वाहिश,
जो तुमसे
संभाली ना गयी,
देखो ना...
वो आज भी
मुकम्मल होने के
इंतज़ार में बैठी है,
देखो ना....
मेरी ये अजीब
सी ख्वाहिश,
सिर्फ ख्वाहिश ही
बनकर रह गई,
मुमकिन तो नहीं
पर काश,
ये ख्वाहिश
तुम्हारे हिस्से में
आयी होती,
काश मैं तुम्हारे
हिस्से में
आया होता,
काश.... पर ये
मुमकिन ही नहीं!
© Ali