...

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प्रिय बसंत
मिटे प्रतीक्षा के दुर्वह क्षण,
अभिवादन करता भू का मन !
दीप्त दिशाओं के वातायन, प्रीति सांस-सा मलय समीरण, चंचल नील, नवल भू यौवन,
फिर वसंत की आत्मा आई,
आम्र भौर में गूंथ स्वर्ण कण, किंशुक को कर ज्वाल वसन तन !
देख चुका मन कितने पतझर,ग्रीष्म शरद, हिम पावस सुंदर, ऋतुओं की ऋतु यह कुसुमाकर,
फिर वसंत की आत्मा आई, विरह मिलन के खुले प्रीति व्रण, स्वप्नों से शोभा प्ररोह मन !
सब युग सब ऋतु थीं आयोजन, तुम आओगी वे थीं साधन, तुम्हें भूल कटते ही कब क्षण?
फिर वसंत की आत्मा आई,देव, हुआ फिर नवल युगागम, स्वर्ग धरा का सफल समागम !