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असहाय
न महावीर है, न बुद्ध है
कहा मानवता का वजूद ढूंढूं ?
कहा करुणा का भाव देखूं ?
कहा अहिंसा का पाठ पढूं ?

यहा पग-पग पर छल-कपट
यहा जन-जन में धृणा-तृष्णा ,
यहा मन-मन में ईर्ष्या-द्वेष
यहां क्षण-क्षण में मिथ्या रोग ।

कहा पाऊं सत्य-प्रेम-विश्वास
कहा देखूं निस्वार्थ सेवा भाव
यहां इंसान के बदलते व्यवहारों में
मैं अकेला निसहाय, नि:स्तब्ध हूं ।

कभी धरा का सुंदर प्राणी था
हंसता-खेलता-कूदता-दौड़ता हुआ ,
निस्वार्थ खुशियां बांटता हुआ
आजकल भीड़ का शिकार बन चुका हूं ।

दुःख-दर्द-तकलीफें से भरा हुआ
न आगे देखता हूं,न पीछे देखता हूं ,
बस अपनी धून में चलता रहता हूं
गूंगा-बहरा मूक प्रेक्षक बनकर ।

महत्वाकांक्षी-स्वार्थी के साथ चलकर ,
अच्छा व्यवहार भी ठुकराने लगा हूं
बुरा व्यवहार ठोस अपनाकर ,
नैतिक मूल्य सहज भूलाकर ।

मैं क्या से क्या हो गया हूं ?
झूठे वादों में जीकर
खाली रिश्तों में दबकर ,
पाषाण हृदय के साथ टकराकर ।

अंदर ही अंदर चिल्लाता-रोता-तड़पता रहा
किस किसको व्यथा-आक्रोश बताऊं ?
इंसान की असंख्य करतूतें देखकर ,
सोच-सोच कर, क्षण-क्षण मरने लगा हूं ।

मैं असमर्थ, असहाय होकर ,
दूसरों के प्रवाह में बहने लगा हूं
मेरे बस में कुछ भी नहीं रहा ,
मेरी अच्छाईयां भी जलने लगी हैं ।

© -© Shekhar Kharadi

तिथि-१/७/२०२२, जुलाई