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शांतिदूत अंगद
सिर पर हाथ रख, प्रभु ने,अंगद को आशीर्वाद दिया।
रामसेना के शान्तिदूत का,अंगद को पदभार दिया।
तर्क-वितर्क का ज्ञान देने को,उसको स्वयं के समीप बैठाया।
रावण के नयन चक्षु खोल,अहंकाररूपी भ्रम हटाने हेतु,
बालक को है लंका पठाया।

शीश नवाँ प्रभु चरण, में अंगद ने प्रस्थान किया।
पहुँच रावण की सभा में,
बड़े ही विनम्र भाव से दशानन,को समझाने
का अथक प्रयास किया।
बालिपुत्र है बड़ा बलशाली,
बीच सभा होकर खड़े,बेझिझक चुनौती दे डाली।
जो कोई बालक का पैर उठाये, सेना सहित राम वापस हो जायें।

सुन अंगद की ललकार,गूँजी सभागणो की अट्ठाहास।
राजा की आज्ञा शिरोधार,उठाने चले बालक के पाँव।
वीर एक से एक हैं आते, एड़ी -चोटी का जोर लगाते।
स्वेद से तर-बतर हैं किन्तु,रत्ती भर पाँव हिला न पाते।

मेघनाथ आवेग में चला है,लिया दोनों हाथों में जकड।
पैर हुआ नही टस से मस,अंगद बने है गिरिधर अचल।
लंका राक्षसवीरों की जननी,का शीश लज़्ज़ा से है झुका।
देख अपने सभा का हश्र,दशानन बड़ा चिंतित हुआ।
लंकापति क्रोधित हो भड़का,आक्रोशित हो स्वयं ही आगे आया।
देख रावण को सन्मुख आते, अंगद ने अपना पैर हटाया।

सिंह बन दहाड़े अंगद,हे मूढ़ बुद्धि! हठ को त्याग
स्वयं को श्रीराम शरण में अर्पित कर,वही करें तेरा कल्याण।
प्रभु हैं दया की मूरत,वही हैं जग के पालनहार,
सभी गुणों की खान, हैं रघुबीर करुणानिधान।