...

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पहले से ज़्यादा…
जब रेत को मुट्ठी में भरते है सोचते हैं भर लिया है
अब, अपनी हैसियत से ज्यादा
गुमान होता है अपनी गहरी कमाई पर
धीरे धीरे ऐसा लगता है पाने के भ्रम में खो दिया है सब
, कंगाल हो गए हैं पहले से भी ज्यादा..
खुली हथेलियों में चिपके रह गए हैं अब भी कुछ कण
चिपके कणों को अपना मान लिया है
अब पर इस खोने पाने के डर से
असर हीन हो गए हैं पहले से भी ज्यादा
और अब अगर टोड़ने को एक मंजर भी दिया हो
तो पीछे से नहीं पूरी इबादत से सामने से आना
क्योंकि अब, अश्मसार हो गए हैं पहले से भी ज्यादा....

© Ritu Verma ‘ऋतु’