...

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तेरे बग़ैर...
तेरे बगैर ही तो मुझे सफ़र करना है
मौत को ही मुझे हमसफ़र करना है

क़ज़ा -ए-इश्क़ इस कदर ठहरा है
हर इबादत में उसे कलम करना है

इश्क़ होता है इश्क़ चाहे जो कहो
क्यों उसे संगदिल सनम करना है

मजबूरी में तुम्हारी जो खाक़ हुए
ये इल्ज़ाम न तुम्हारे सर करना है

इश्क़ ए-वसीयत तुम्हे रास न आया,
ये मलाल मुझे आख़िरदम करना है..!!

© प्राची मिश्रा "जिज्ञासा"

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