...

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आँखों का पोखर
देखा है मैने
दरख्तों को करते हुए श्रृंगार
हरे लिबास में मुस्कुराते हुए
कितने सुंदर लगते है
चिड़ियों को पनाह देते हुए

तो कभी सरसराती बदहवास
चीरती हुई हवाओ से
नग्न हुए दरख्तों की
वीरानी भी देखी है
कसक --चाहत-- इंतजार
एक नए कलेवर पाने की
जब शायद वे एक बार
फिर जी उठेंगे !

क्या तुमने देखा है कभी
पोखर की उन हरी हरी आंखों में !
रहस्यमयी कोई संसार समेटे हुए
शायद इसमें भी कोई जीवन पलता है
हा...
पोखर के ह्रदय से भी कंवल खिलता है ....

कभी निहारा है
झील सी उन नीली आँखो में
कितनी गहरी है ना..
जाने कितने स्वप्न मछलियों से
गहरी सी श्वांस लेते है ..

मौसम आते हैं -गुजर जाते है
जानते हो सबसे दुखद क्या है ...
ये मौसमी नजारे कुदरत के
हमेशा नही रहते
पोखर का ह्रदय कंवल भी
मुरझा जाता है
झील की गहराई में डूबकर
अमावस की रात
चाँद भी निद्रामग्न हो जाता है .....

स्थिर कुछ है तो बस
मेरे दिल का मौसम,
झांक लेना यूँ ही कभी
भले सरसरी निगहों से-
सदाबहार इन आँखों के पोखर को,
बारहमासी भरा हुआ मिलेगा

समय मिले तो
गहराई में उतर जाना कभी
स्वप्नों का कमल तैरता मिलेगा
और ढूंढ रहा होगा प्यासी निगाहों से
अपने प्रेमी चाँद को.......