...

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दिल के वस्त्र फटे हुए हैं
अपने अपनो से कटे हुए हैं
शहर के मकान ज्यों सटे हुए हैं।
खोल के रख दो,चाहे दिल की पोथी
हर सवाल के जवाब रटे हुए हैं।
मन की पीड़ा कोई न जाने
खुद ही खुद में घुटे हुए हैं।
जिस्म जिस्म की बाहों में झूले
दिल के वस्त्र फटे हुए हैं।
अढ़ाई आखर के झुण्डों से
मनोज ये खुले में लूटे हुए हैं।।
© मनोज कुमार