...

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“कितनी अजियतों के बाद मिलती है, दुख की घडी”
देखो कितने बे -असर ही रहे जमाने के रंग,
कि हर फुरकत में, हर लम्हा, तेरा याद आता है।

मुझे कुछ भी सूझता नहीं, तेरे सिवा जानेजां,
हर कीमत पर तेरा, चेहरा नजर आता है।

कि कितनी अजियतों के बाद, मिलती है दुख की घड़ी,
फिर पहलू में उलझकर तेरे, मेरा गुनाह नजर आता है।

रूह की हद से गुजर जाता है 'बुझता हुआ चिराग’,
रात होते-होते ये जिस्म, कहां निकल जाता है ?

एक वफादारी है इश्क में, जिसका मुझे दावा है,
बाकी बातों का पता नहीं, मुंह से क्या निकल जाता है ?

गम के फिराक में, ये जिंदगी कितनी हसीन लगती है,
मेरे हिस्से की खुशी को तो, सांप निगल जाता है।

देखो वफा कर बैठे, हाथों में कुछ मिला नही,
अब खाली भी हम बैठे हो, तो नुक्स नजर आता है।

इन दौलत के दीवानों में, हम क्यों जिएं जमाने में,
उस बे-महर की तराह ही, हर शख्स नजर आता है।

अब नजदीक भी बुलाए अगर, तो रहिएगा सावधान सभी,
उसके दिल में मोहब्बत नहीं, बस छल नजर आता है।
© #Kapilsaini